रविवार, 28 सितंबर 2008

हिन्दी ब्लागिंग और हमारी व्यवसायिक चिंता


भाई रवि रतलामी जी के ब्लॉग http://raviratlami.blogspot.com/ से जानकारी मिलने पर अनिल जी आपके ब्लॉग http://diaryofanindian.blogspot.com/2008/03/4500.html पोस्ट का अवलोकन किया। सर्वप्रथम आपको साधुवाद प्रेषित करता हूँ फ़िर अपनी बात कहता हूँ...!! हम हिन्दी लेखन में रूचि रखने वालों के साथ यह मूलभूत समस्या है कि करते कम हैं और बोलते ज्यादा हैं। मैं सबसे यह आग्रह करूँगा कि अपने गिरेबां में झाँककर देखें कि हम हिन्दी ब्लोगिंग की विधा शुरू होने के बाद कितनी निष्ठा, गंभीरता और लगन से हिन्दी लिख रहे हैं। उसकी भाषा शैली, विषयवस्तु पर कितनी मेहनत किया है।


करने से अधिक पाने की लालसा में जो हो सकता है, या जो हो रहा है वह भी नकार दिए जाने के कारण ही हिन्दी और हिन्दी लेखन की यह दशा है। हम हिन्दी की बात करते हैं लेकिन उसके दैनिक जीवन, कामकाज में उपयोग के सम्बन्ध में कभी नहीं सोचते। हम में से अधिकांश लोग मेरी तरह ही चूँकि अंग्रेजी अच्छी नहीं आती इसलिए हिन्दी लेखन करते हैं। हम हिन्दी ब्लोगिंग को अंग्रेजी की ब्लोगिंग से तुलना करते हुए यह क्यों भूल जाते हैं कि तकनीक से जुड़े सभी उपकरण एवं सुविधाएँ पहले अंग्रेजी में और फ़िर आवश्यकता प्रतिपादित होने पर हिन्दी के लिए प्रायोगिक तौर पर तैयार की जाती है।


अंग्रेजी ब्लोगिंग के साथ सुविधा इस बात की है कि तकनीक की दुनिया उसके लिए पढ़े लिखे और भरपेट लोगों की वैसे ही एक फौज खड़ा कर रखती है। अंग्रेजी ब्लोगिंग के सफर को हिन्दी से पहले शुरू कर उस चरण तक पहुँचाया जा चुका है, जहाँ से व्यवसायिक लाभ अर्जन किया जाना सुलभ है। लेकिन अभी हम उस शुरूआती चरण में है, जहाँ इस तरह के श्रम के सम्बन्ध में सोचना....हिन्दी के साथ "बालश्रम" कराने जैसा होगा। मित्रों पहले हम सर्व स्वीकार्य शब्द...NGO जैसे कार्य करते हुए..हिन्दी ब्लोगिंग को एक गंभीर वैविध्यपूर्ण मंच बनायें। फ़िर इससे व्यवसायिक लाभ तो स्वमेव प्राप्त होना आरम्भ हो जाएगा।


हम में से जिनको हिन्दी लेखन में रूचि है, तकनीक और आर्थिक रूप से सक्षम है, उनकी जिम्मेदारी पहले, अधिक और महती है कि वह अलख जगाये...और जगाये रखें । मैं इस बात से सहमत हूँ कि एक बार सक्षमता साबित होने के बाद शेष तो ......आता और होता ही जाएगा। हम इस विषय में थोड़े तंग दिल, भावुक होकर ज्यादा सोच रहें हैं । आवश्यकता व्यवहारिक होने की है..!!! शायद !!!


यह क्या कम है कि अनिल जी, तरुण जी, साकेत जी वहां पहुँचकर तकनीक, रणनीतिक ज्ञान अर्जित किए साथ ही सबके बीच उसे पहुँचाया भी। शेष रणनीतिक बिन्दु तो हिन्दी के ब्लोगर "पंडित", "विशेषज्ञ, और "गुरूजी" अक्सर हम सबके बीच "उड़न तश्तरी" में बांटते ही रहते हैं। जिसके लिए मेरा उन्हें हिन्दी ब्लागर के रूप में न केवल प्रणाम है, अपितु सिपाही के रूप में salute भी है।


और क्या कहा जाये ????.....अभी तो हिन्दी ब्लोगिंग में पैसा है नहीं ? इसलिए आपको तब तक मुझ जैसे लोगों को झेलना ही पड़ेगा।

समीर यादव




सोमवार, 22 सितंबर 2008

दृष्टिकोण

आम आदमी और आतंकवाद ...............
"यह हकीकत अभी सोच में जगह नहीं बना पाई है कि सारी हिंसाओं का मूल उद्येश्य व्यवस्था को चुनौती देकर उसकी नपुंसकता को ललकारने का ही होता है "
आतंकवाद से निपटने की ताजा बहस में सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरियों की पहचान कर उन्हें दूर करने की उपाय ही तलाशे जा रहे हैं। इस कोशिश में आम आदमी की चिंता को केवल उस आतंकवाद तक सीमित किया जा रहा है , जो भीड़ भरे बाजारों में छुपाकर रखे जाने वाले बमों के जरिये उत्पन्न हो रहा है।
हम उस सामाजिक असहिष्णुता को किस तरह के आतंकवाद का नाम देना चाहेंगे और उससे निपटने के लिए किन तरीकों की खोज करना चाहेंगे, जिसमें भाषा और स्थानीयता को मुद्दा बनाकर लोगों को हिंसा का निशाना बनाया जाता है ? वे तत्त्व , जो खुलेआम सविंधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाते हुए आये दिन फतवे और फरमान जारी करते हैं , क्या उन लोगों से अलग और बेहतर है जो पेड़ों पर विस्फोटकों को तो लटका देते हैं, पर उन्हें तारों से नहीं जोड़ते ? धर्म के नाम पर विभिन्न समुदायों के बीच आए दिन सड़कों पर होने वाले दंगो और उनमें होने वाली मौतों का जिक्र किस किस्म की नागरिक सुरक्षा में होना चाहिए ? क्या नक्सलवाद हिंसा के कारण मौत की चपेट आने वाले नागरिकों और पुलिसकर्मियों की सुरक्षा के लिए सोचे जाने वाले उपाय आतंकवादी हिंसा के मुकाबले कुछ अलग किस्म के होने चाहिए ? सांस्कृतिक आतंकवाद के कारण उपजने वाली हिंसा का जिक्र किस तरह के अपराधों कि सूची में होना चाहिए ?
व्यवस्था का शायद इसमें कुछ निहित स्वार्थ है कि वह आतंकवाद को अलग-अलग हिंसाओं में बांटकर उससे मुकाबले की रणनीती भी अलग-अलग बनाना चाहती है, जबकि सभी स्थानों पर अपने को असुरक्षित महसूस करने वाला आदमी एक ही है। माँ-बाप की शर्त भी यही है कि जो बच्चा अपना टिफिन लेकर सुबह घर से निकला है, उसके सुरक्षित वापस लौटने कि गारंटी व्यवस्था को देनी चाहिए । उसे हर प्रकार की हिंसा से संरक्षण मिलना चाहिए, पर ऐसा हो नहीं रहा है. चूँकि हिंसा के शेष प्रकार राजनीतिक वोट बैंक को सूट करते हैं, इसलिए उनपर कोई बहस नहीं करना चाहता . इसमें किसी प्रकार के शक की गुंजाइश नहीं कि बम विस्फोटों के जरिये निरपराध नागरिकों को अपना निशाना बनाने वाले आतंकवादियों के खिलाफ प्रभावी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए , पर इसके लिए अगल बगल झांकने के जरुरत नहीं पड़नी चाहिए . उदाहरण दिये जा रहे हैं कि 9/11 के बाद अमेरिका में लागू किए गए कड़े सुरक्षा बंदोबस्तों के चलते कोई आतंकवादी घटना नहीं हुई, पर आतंकवाद को लेकर पश्चिमी देशों कि चिंताए और उससे निपटने के उपाय भारतीय सन्दर्भों में फिट नही बैठते . ठीक वैसे ही जैसे समुद्री तूफानों के कारण अमेरिका में होने वाली तबाही और उससे निपटने के सन्दर्भ बिहार में कोसी और उड़ीसा में महानदी की बाढ़ से मचने वाले हाहाकार से काफी अलग है. हम पश्चिमी देशों से अत्याधुनिक हथियार तो खरीद सकते हैं , पर उनके इस्तेमाल के तरीके पश्चिमी नहीं हो सकते ।
आतंकवादी हिंसा को लेकर सारा सोच अंत में केवल इस बिन्दु के आसपास जमा होकर रह जाता है कि इसके कारण आम आदमी को जान माल की हानि भुगतनी पड़ती है और यह भी कि सबसे ज्यादा तबाही का शिकार गरीब आदमी ही होता है, परन्तु यह हकीकत अभी सोच में जगह नहीं बना पाई है कि सारी हिंसाओं का मूल उद्येश्य व्यवस्था को चुनौती देकर उसकी नपुंसकता को ललकारने का ही होता है। और व्यवस्था का रिस्पांस शोक सभाओं में दो मिनट के दौरान व्यक्त होने वाले सन्नाटे से ज्यादा गंभीरता लिए हुए नहीं होता। व्यवस्था की इसी उदासीनता से त्रस्त होकर आम आदमी आतंकवाद से लड़ने या उससे बचने के अपने तरीके ईजाद करने की ओर दौड़ता है और यह काफ़ी खौफनाक स्थिति है कि व्यवस्था एक मुकाम पर पहुंचकर आतंकवादियों के साथ साथ आम आदमी के निशाने पर आ जाती है।
श्रवण गर्ग जी ने अपने इस लेख के माध्यम से देश की वर्त्तमान व्यवस्था पर अपने नजरिया का एक खाका खींचा है....यह सच भी जिसे हम अनेक उदाहरणों से समझ सकते हैं-: यथा ....
१ कभी आतंकवाद के विरुद्ध , देश में समय-समय पर जातीय , कौमीय अथवा अन्य समस्यायों को लेकर होने वाले सामूहिक विरोधों से निपटने में कथित रूप से हमारे सुरक्षा बलों के अनुभव से स्कॉट्लैंड यार्ड की पुलिस भी लाभान्वित होती रही है।
२ आतंकवाद के विरुद्ध जब भी कोई स्पष्ट नीति के साथ लड़ने की बात आती है तो हम सुरक्षा और लड़ाई दोनों ही मोर्चो पर उस "आम आदमी" की भूमिका और कष्ट को अनदेखा क्यों कर दे रहे हैं।
३ इस तरह के कार्रवाई जिनसे अभी तक का इतिहास गवाह है....ज्यादा प्रभावित होने वाले लोग उस वर्ग से हैं जिनका समुचित दमदार प्रतिनिधित्व, आवाज एवम नेतृत्व उन नीति निर्धारकों तक नहीं है। जिसकी वजह से यह सूरत बदल ही नहीं रही है. एक किसी हमले में कोई इनकी परिभाषा से बड़ी क्षति तो हो फ़िर इनकी तत्परता क्या तीन चैनेल के समक्ष तीन सुइट बदलने के लायक रहती, यह गौर करने की बात हो सकती है।
4 आवश्यकता आतंकवाद के विरुद्ध एक ठोस नीति और कानून के साथ उसके पीछे के कारणों को इंगित कर जड़ से समाप्त करने की भी बनी रहेगी।
५ सुरक्षा बलों के कार्य करने के तरीके का विश्लेषण आवश्यक है, कई बार यह मान लिया जाता है कि संख्या, संसाधन एवम प्रशिक्षण में कमी के कारण यह स्वाभाविक चूक है....कदाचित उनकी नैतिक जिम्मेवारी आम आदमी से अधिक होने के कारण नैतिकता की कसौटी पर परखा जाना भी आज की परिस्थिति में अनिवार्य हो गया है।
और भी कुछ तथ्यात्मक बातों पर कभी फ़िर अपनी बातें करेंगे. --

रविवार, 21 सितंबर 2008

लेकिन छाँव तलक सर ना....

कुछ ऐसी रचनाये रची जाती हैं जो चिरकाल तक सामयिक होती हैं..इस तरह की रचनाओं में रचियता की सोच कितने दृष्टा भाव और दर्शन से पगा होता है, इन रचनाओं को बार-बार पढ़ने से महसूस होता है. ऐसी ही एक रचना जो मै पिछले 20 से अधिक वर्षों से सुनता और पढ़ता रहा हूँ ....आदरणीय बाबूजी बुधराम यादव की यह रचना अपनी प्रासंगिकता से कभी भी परे जाती मुझे नहीं लगी. जब जब इसे पढ़ता हूँ एक नई उर्जा, नई सोच और अपने उत्तरदायित्व के लिए नया खुराक मिलता है. आप भी रसास्वादन करें...


लेकिन छाँव तलक सर ना....

हुआ नसीब न आम आदमी बनकर भी जीना मरना
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


सुखी रोटी की आशा में मिहनत कश श्रम बेच रहे
क्षुधा अतृप्त बुझाते अविरल तन से जिनके श्वेद बहे
सिरजे लाख महल हाथों से लेकिन छाँव तलक सर ना...
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना

कुछ मुठ्ठी भर लोग जमाने की राहों को मोड़ रहे
छल प्रपंच से रीति नीति की बाहें तोड़-मरोड़ रहे
जनहित खातिर पाए हक़ से लगे सिर्फ़ झोली भरना....
वाई है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


बहुरूपिये हो रहे आज ये प्रजातंत्र के पहरेदार
दिन प्रतिदिन बौने लगते वे कंधे जिन पर देश का भार
लाकर भी बसंत उपवन में जब पतझर सा है झरना ....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना

रक्षक ही भक्षक बन बैठे कौन करे किस पर विश्वास
कुछ भी नहीं सुरक्षित मन में हरदम त्रास और संत्रास
बन्दर के जब हाथ उस्तरा मान चलो तब है मरना .....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना

कैसे कोई रामराज्य के फ़िर सपने होंगे साकार
शबरी जटायु निषाद अहिल्या के कैसे होंगे उद्धार
जिन्हें समस्यायें रुचिकर हों समाधान से क्या करना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना


रचियता ...
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

दृष्टीकोण... आतंकवाद

कठोर कानून ही पर्याप्त नहीं .....

हमारा लगातार कानून से भरोसा उठता जा रहा है , फ़िर भी हम ऐसे कानून की उम्मीद करते हैं जो आतंकवादियों से निपट सके...

" अद्भुत.." ! मेरे आगे बैठी एक युवती अचानक बोल पड़ी . यह फ़िल्म ' a wednessday ' का आखिरी दृश्य था और आम आदमी से बोम्बर में बदले नसीरुद्दीन शाह अपनी बेहतरीन नाटकीय भूमिका में थे। जब हम पर आतंकी हमला होता है और सरकार कुछ नहीं कर पाती , तब आप आम आदमी से क्या उम्मीद करते हैं ? " आख़िर आपने हमारे सामने हथियार उठाने और आतंकवादियों को ख़त्म करने के अलावा क्या विकल्प छोड़ा है ? " वह गरजते हुए सभी नागरिकों से हथियार उठाने और उन सबको बम से उड़ाने को अपील कर रहे थे जिन्हें वे "आतंकवादी" समझते हैं. 'अद्भुत !' वह युवती फ़िर प्रशंसा के भाव से बोली. पड़ोस के एक थियेटर में नागरिक सतर्कता का नया चेहरा , सलवा जुडूम नाटक खेला जा रहा था.

वातानुकूलित मल्टीप्लेक्स में बैठकर पेप्सी गटकते हुए आतंकियों को बम से उड़ने के सपने देखना कितना आसान है। नागरिक दस्तों का विचार सम्मोहक हो सकता है, लेकिन डरावनी गुमनामी में कहर बरपाते rdx बोम्बरों और हाई-टेक आतंकियों की जीती जागती दुनिया में वे ज्यादा काम के नहीं हैं . यही नहीं , सलवा जुडूम पर बहस से यह भी साबित हो चुका है कि सशस्त्र नागरिक दस्ता अव्यवस्था और नृशंस अराजकता का नुस्खा बन सकता है. जब भी नियमित और शर्मनाक ढंग से आम आदमियों को मौत के घाट उतार रहे चुस्त व तेजतर्रार सामूहिक हत्यारों से निपटने की बात आती है तो भारतीय राज्य बुढाते विदूषक तरह नजर आता है.

दिल्ली धमाकों के बाद क्या हुआ ? एक सुर में वही पुरानी रस्में चलती रहीं हैं जब तक कि अगला धमाका , अगला आतंकी हमला नहीं हो जाता। 2001 से अब तक 11 बड़े धमाके हुए हैं॥ लेकिन जब तक ऐसे नरसंहारों को राजनेता विचारधारात्मक मसलों में तब्दील करते रहेंगे, दहशतगर्द हमेशा जीतेंगे. आतताइयों से पुलिस और व्यवस्था के जरिये लड़ना होगा, राजनीति के जरिये नहीं . यदि पोटा की पुनर्बहाली के मूल में अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का मसला बना रहता है, यदि फेडेरल इंटेलिजेंस एजेन्सी बनाने का विचार इस तथ्य का बंधक बना रहता हैं कि राज्य केन्द्र के लिए अधिकार नहीं छोड़ना चाहते , तो हम इन दुष्प्रेरित हत्यारों से लड़ने कि उम्मीद नहीं कर सकते जो देश के हर हिस्से में मौजूद हैं.

विशेषज्ञों ने कई ठोस उपायें सुझाएँ हैं : धमाके होते ही इलाके में सभी मोबाइल नेटवर्क बंद कर दिए जायें , लक्ष्य को निर्धारित करने से पहले फोरेंसिक खोज का अनुसरण किया जाए , सबसे जरुरी बात , यह सीखना के फोरेंसिक सुबूत जुटाएं और उनके पीछे चलें । आतंकवादी कौन हैं ? किस तरह का अतिवादी है , ऐसी बातें सिर्फ़ उच्चस्तरीय जाँच - पड़ताल से ही पता चल सकती हैं . लेकिन क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं के आरुषि तलवार की जाँच में गड़बड़ करने वाली पुलिस अचानक आतंकवादियों की पड़ताल में इतनी सक्षम हो जायेगी ?

राजनीतिक वर्ग पुलिस एवम न्यायिक सुधारों को रोकता है , लेकिन खाकी वर्दीधारियों से आतंकवाद से निपटने की उम्मीद करता है. हम इस बात को महसूस किए बगैर अर्थव्यवस्था व समाज को बेहतर पुलिस और न्यायिक व्यवस्था के रक्षण और संरक्षण की जरुरत है. आधुनिक पुलिस के बिना कोई कानून किसी काम का नहीं होगा . टाडा की तरह आरोप सिद्ध करने की दर एक फीसदी से भी कम होगी . राष्ट्र को ही नहीं, नागरिक समाज को भी ख़ुद को सुधारने को जरुरत है. हमारा लगातार कानून से भरोसा उठता जा रहा है , फ़िर भी हम ऐसे कानून की उम्मीद करते है जो आतंकवादियों से निपट सके . हमें एक नई साझेदारी , नए सामाजिक अनुबंध की जरुरत है . हमें ऐसा लोकतांत्रिक नागरिक चाहिए जिसे लगे कि जब-जब वह कानून तोड़ता है, वह कानून को और कमजोर और आतंकवादियों को सशक्त बनाता है. यदि ऐसा होता है , तो क्या यह वास्तव में "अद्भुत" नहीं होगा.
राजदीप सरदेसाई ....

मेरे दिल के करीब का एक लेख जो मैं आप सबके साथ..... दोनों हैसियत से बांटना चाह रहा था...क्षमा करेंगे !! ....इसीलिए पोस्ट किया.

बुधवार, 3 सितंबर 2008

अलख

अनिल जी नमस्कार....!


बहुत आभार आपने मेरे ब्लॉग पोस्ट्स का अवलोकन किया
और अपने विचार भी दिये...आदरणीय बुधराम जी की ओर
से आपको धन्यवाद।
आपका सहयोग सदैव अनुकरणीय होगा.

हाँ एक बात अवश्य कहना चाहूँगा ....
पुलिस की आलोचना बहुत आसान है।
उतना ही जितना की मल त्याग के बाद मलद्वार को धोना... !!!!

पुलिस को संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित कराना
किसकी जिम्मेदारी है ?

क्या पूरे तंत्र को पुलिस संचालित कर रही है

क्या पुलिस नक्सल समस्या के विरुद्ध किसी एक नीति को
अनुसरण कर पा रही है ?

और फिर नीति निर्धारण का काम किसका है ?

उसके निर्माण में पुलिस की कितनी भूमिका होती है ?

उसके क्रियान्वयन के कितने अधिकार पुलिस को दिये गए हैं ?

क्या नक्सल समस्या पुलिस की देन है

helecopter गुम हुआ .....क्या हुआ, नहीं हुआ...यह तो पता
चल जायेगा।
जब 'मैना' गुम हुआ था मैंने जबलपुर SDOP के रूप में तीन दिन
और रात उसकी तलाश अपने क्षेत्र में मीडिया बंधुओं और
स्थानीय लोगों के साथ की थी,
( सन्दर्भ हेतु आप मेरे ब्लॉग के फूटर के चित्रों को देखें।)

उपलब्ध संसाधनों से व्यवहारिक रूप में helecopter को खोजा जाना
मुश्किल नहीं दुष्कर होता है. मैना को भी हमने सेना की मदद से
ढूंढा था.....भाई.
आप आज की परिस्थितियों से वाकिफ हैं .... उसके लिए भी अलख जगाएं ।

यह कोई पुलिस का बचाव नहीं वास्तविकता से परिचय भर है...!



धन्यवाद्

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

निरापद

संजीव भाई...


आपने "मनोरथ" के साथ "समीर" शीर्षक से एक और ब्लॉग
तैयार कर मुझे भेंट किया है...पहले तो मैंने देखा ही नहीं था...
अब समझ में आप अपने जैसी उर्जा से मुझे भी कार्य करना
चाहते हैं जो कि बहुत मुश्किल है...!!! हा हा ...

लेकिन उत्तरदायित्व से पीछे हटना भी स्वीकार नहीं ,
अतएव आपकी इच्छा का मान रखने का प्रयास करूँगा.

पहले पहल इस पर कुछ पत्राचार को बिना आपके
अनुमति के पोस्ट कर दिया हूँ....जिसके सम्बन्ध मेरी
धारणा है कि यह सभी लोगों के बीच जाना चाहिए।
इस सम्बन्ध में आपका विचार महत्वपूर्ण होगा।
जिसका मै सम्मान करता हूँ.


अपने आदरणीय बुधराम यादव को "गुरतुर गोठ" के
सम्पादकीय दायित्व से मंडित कर दिया है....नेट पत्रिका
के आवरण पर उनका नाम उकेरे जाने के लिए मैं
आपका ह्रदय से आभारी हूँ । उनके व्यक्तित्व, कृतित्व
और आचरण का सम्मान करना एवम अक्षुण रखना भी
हमारा दायित्व होगा। क्योंकि उनके जैसे मानस लोग
लुप्तप्राय हैं........वह वस्तुतः निरापद ....साधू प्रवित्ती के
व्यक्तित्व हैं .


आप इन सबके मध्य 'मनोरथ' , 'समीर' और
मेरा भी स्मरण रखेंगे।

ऐसी अपेक्षा है ....

सोमवार, 1 सितंबर 2008

मित्रता का रस

संजीव भाई जोहार..!


मित्रता का रस और अधिक सान्द्र हो जाता जब मतैक्य हो॥
अधिक सोचने की बात नहीं ( मूल उद्येश्य तो आरम्भ से एक है )
मै तो आपके श्रम से तैयार ब्लॉग 'मनोरथ' के नए टेम्पलेट की
प्रशंसा हेतु तत्पर होकर कह रहा हूँ ..हा हा हा ....!!!

लगभग परिकल्पना के निकट टेग्स का प्रतिस्थापन,
हेडर, फूटर, सादगी, रंगों एवम चित्रों का संयोजन पहले से
अधिक परिष्कृत और रुचिकर है। अब यदि आपको भी
ठीक लग रहा हो तो इसे ही चयनित किया जाए.

हाँ ! इसके अतिरिक्त थोडी सी चर्चा chhattisgadhi रचनाओं
एवम इसकी उपलब्धता के साथ प्रचार-प्रसार को लेकर है
तो जब आदरणीय बाबूजी जन्माष्टमी के कार्यक्रमों से निवृत्त
होकर जब भी चर्चा करेंगें मैं आपके साथ कांफ्रेंस करके विमर्श कर लूँगा।

साहित्य और कला जगत की रोजमर्रा की मुश्किलों और
जरूरतों से मैं परिचित नहीं हूँ , ना ही किसी भी कार्यशील
व्यक्तित्व से प्रत्यक्ष परिचित हूँ। अतएव इसका बीड़ा आप
लोगों को ही उठाना है। इसमें मेरी कार्यकारिणी भूमिका भी
आप लोगों को तय करना है. तकनीक, लेख सम्बन्धी सक्षमता आप,
आदरणीय बाबूजी साहित्य सम्पादन, संग्रहणऔर अन्य
सक्रिय भाई यथा.... युवराज। एवम अन्य जिनसे मै परिचित
नहीं हूँ अपनी क्षमता से अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।

आपका स्वप्न और सोच बहुत ही तार्किक और उत्तम है॥
क्योंकि यदि हम तकनीक का उपयोग अपने ज्ञान के सर्वांगीण उत्कर्ष
के लिए ना करें तो पहले तो स्वयं हम तदुपरांत कालांतर में आने वाली
पीढी को जवाब नहीं दे सकेंगें...!

अभी के लिए इतना ही , आपके विचारों को जानने के लिए उत्सुक रहूंगा।

ब्लॉग के लिए आपको पुनः आभार ॥!

राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा भी है....
अमर राष्ट्र, उद्दंड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र यही मेरी बोली है
यह सुधार समझौते वाली भाती नहीं मुझे ठिठोली है



स्नेह...

समीर.

'गुरतुर गोठ'

यह अच्‍छी खबर है कि 25 अगस्‍त तक 'गुरतुर गोठ' के लिये रचनायें
मिलनीशुरू हो जायेगी, उसके टायपिंग की व्‍यवस्‍था करनी होगी,
इसे किसीटायपिस्‍ट से ही करायें, कृति या श्रीलिपि में यदि टाईपिंग
करवायेंगें तोउसे कनर्वटर से किंचित सुधार के बाद, यूनिकोड कनर्वट
हम कर लेंगें ।

इधर मैं भी छत्‍तीसगढी साहित्‍य समिति के संस्‍थापक अध्‍यक्ष
श्री सुशीलयदु जी से रचनाओं के संबंध में अनुमति ले लिया हूं
उन्‍होंनें भी हमेंआर्शिवाद दिया है, दुर्ग-रायपुर के अन्‍य छत्‍तीसगढी
साहित्‍यकारों से भीमैं समय समय पर मिलते रहूंगा । पर रचनाओं
के चयन के संबंध में आदरणीयबुधराम जी से ही स्‍वीकृति लेनी होगी,
यह कार्य आपको करना होगा, पुरानीरचनाओं के संबंध में तो उन्‍हें
आप फोन में ही बतलायेंगें तो स्‍वीकृतिमिल जायेगी किन्‍तु नये रचनाकारों
की रचनाओं के लिये आपको एवं मुझकोस्‍वविवेक से निर्णय लेना होगा ।
मैं चाहूंगा कि 'गुरतुर गोठ' में आदरणीय बुधराम जी का नाम संपादक एवं
हमदोनों का नाम बतौर सूत्रधार या तकनीकि सहयोगी या उप संपादक,
जैसे नेटमैगजीन में लिखा जाता है वैसा ही लिखा जाय, समय समय
पर छत्‍तीसगढीसाहित्तिक सांस्‍कृतिक गतिविधियों पर
आदरणीय बुधराम जी के लेख भीप्रकाशित होते रहें ।

अभी इसे छत्‍तीसगढी का प्रतिनिधि ब्‍लाग के रूप में ही प्रतिष्ठित करतेहैं
बाद में विभिन्‍न स्‍थानों में इसे समाचार के रूप में प्रचारित करनेका
प्रयास करेंगें, छत्‍तीसगढ में तो साहित्‍यकारों की राजनीति के
कारणयह समाचार नहीं बन पायेगा दूसरे प्रदेशों में इसके लिये
प्रयास करेंगें ।धीरे धीरे हम स्‍वयं सुदृढ हो जायेंगें, नेट पत्रिका के
स्‍थान पर इसेइसी रूप में चलने दें, डाट काम होने के कारण
इसे हम नेट पत्रिका याब्‍लाग पत्रिका दोनों नाम दे सकते हैं ।
प्रिंट पत्रिका के रूप में प्रकाशित करने में बहुत झंझट है
और बजट का भीलफडा है और मुख्‍य बात यह कि जब
हम आदरणीय बुधराम यादव जी के नाम काप्रयोग कर रहें हैं
तो मैं नहीं चाहता कि इसके नियमित रहने में कोईरूकावट आवे ।
सभी मुद्दों पर चिंतन करने के बाद मुझे लगता है कि वर्तमानस्‍वरूप
में इसे नियमित करने में हमें कोई भी परेशानी नहीं आयेगी
सिवारचनाओं के टाईपिंग के । वैसे भी हम छत्‍तीसगढी का
प्रतिनिधि ब्‍लाग यापोर्टल के रूप में भी 'गुरतुर गोठ' को यथेष्‍ठ स्‍थान
दे सकते हैं, जोब्‍लाग को नहीं समझते उन्‍हें तो नेट मैगजीन ही
कहना पडेगा और यहां 90प्रतिशत नेट प्रयोक्‍ता भी ब्‍लाग और
इंडिपेंडेंट पोर्टल का मतलब नहींसमझता ।हम दोनों नेट पर इसे
बढावा देनें का हर संभव प्रयास करते रहेंगें । आगेमिल जुल कर
विचार करते रहेंगें ।

इस संबंध में आप आदरणीय बुधराम जी से
जबवे जबलपुर आयेंगें तब चर्चा कर लीजियेगा, 'गुरतुर गोठ' '
सृजन गाथा''कविता कलस' आदि को दिखलाते हुए उनके
आर्शिवाद के बाद हम दोनों शुरू होजायेगें । इस संबंध में आप भी
अपना सुझाव देवें ।

ठीक है भाई ............
शेष फ़िर

संजीव

--http://aarambha.blogspot.com
www.gurturgoth.कॉम

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अंतर्मन

मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो, उडी जहाज को पंछी फिरि जहाज को आयो.....
जब ... कीबोर्ड के अक्षरों संकेतों के साथ क्रीडा करता हूँ यह कभी उत्तेजना, कभी असीम संतोष, कभी सहजता, तो कभी आक्रोश के लिए होता है. और कभी केवल अपने समीपता को भाँपने के लिए...

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