शनिवार, 30 अगस्त 2008

"भगीरथ बाना"

संजीव भाई ॥!



आज आपके विस्तृत ईमेल से आपके "भगीरथ बाना" के
सार्थकता का परिचय मिला। अव्यवसायिक, अवैतनिक
होकर ही ऐसे कार्यों कि आरम्भ होता है।
किन्तु "मैं तो अकेला हीचला था जानिबे मंजिल, लोग
मिलते गए कारवां बनता गया" भी आवश्यक है।
आदरणीय बुधराम यादव जी से मेरी चर्चा हुई
उन्होंने प्रथमतः आपके कार्यों को सराहा तदुपरांत
आपके द्वारा प्रस्तावित सम्मान को भी स्वीकार किया।
किन्तु वह नेट प्रयोक्ता नहीं हैं, अतएव रचनाओं के लिए
स्वीकृति,संग्रहण, संपादन व्यक्तिशः ही कर सकेंगे।
तथापि आपसे फोन पर चर्चा करने की इच्छा व्यक्त की है।
अपना सुलभटेलीफोन नंबर प्रेषित करने का कष्ट करें
ताकि "आरम्भ" के उपरांत भी मेरी गतिशीलता बनी रहे.


पुनश्च.....! नमस्कार
समीर.....

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अंतर्मन

मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो, उडी जहाज को पंछी फिरि जहाज को आयो.....
जब ... कीबोर्ड के अक्षरों संकेतों के साथ क्रीडा करता हूँ यह कभी उत्तेजना, कभी असीम संतोष, कभी सहजता, तो कभी आक्रोश के लिए होता है. और कभी केवल अपने समीपता को भाँपने के लिए...

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