लेकिन छाँव तलक सर ना....
कुछ ऐसी रचनाये रची जाती हैं जो चिरकाल तक सामयिक होती हैं..इस तरह की रचनाओं में रचियता की सोच कितने दृष्टा भाव और दर्शन से पगा होता है, इन रचनाओं को बार-बार पढ़ने से महसूस होता है. ऐसी ही एक रचना जो मै पिछले 20 से अधिक वर्षों से सुनता और पढ़ता रहा हूँ ....आदरणीय बाबूजी बुधराम यादव की यह रचना अपनी प्रासंगिकता से कभी भी परे जाती मुझे नहीं लगी. जब जब इसे पढ़ता हूँ एक नई उर्जा, नई सोच और अपने उत्तरदायित्व के लिए नया खुराक मिलता है. आप भी रसास्वादन करें...
लेकिन छाँव तलक सर ना....
हुआ नसीब न आम आदमी बनकर भी जीना मरना
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
सुखी रोटी की आशा में मिहनत कश श्रम बेच रहे
क्षुधा अतृप्त बुझाते अविरल तन से जिनके श्वेद बहे
सिरजे लाख महल हाथों से लेकिन छाँव तलक सर ना...
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
कुछ मुठ्ठी भर लोग जमाने की राहों को मोड़ रहे
छल प्रपंच से रीति नीति की बाहें तोड़-मरोड़ रहे
जनहित खातिर पाए हक़ से लगे सिर्फ़ झोली भरना....
वाई है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
बहुरूपिये हो रहे आज ये प्रजातंत्र के पहरेदार
दिन प्रतिदिन बौने लगते वे कंधे जिन पर देश का भार
लाकर भी बसंत उपवन में जब पतझर सा है झरना ....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
रक्षक ही भक्षक बन बैठे कौन करे किस पर विश्वास
कुछ भी नहीं सुरक्षित मन में हरदम त्रास और संत्रास
बन्दर के जब हाथ उस्तरा मान चलो तब है मरना .....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
कैसे कोई रामराज्य के फ़िर सपने होंगे साकार
शबरी जटायु निषाद अहिल्या के कैसे होंगे उद्धार
जिन्हें समस्यायें रुचिकर हों समाधान से क्या करना....
मिथ्या है फ़िर आस व्यवस्था से सुविधाओं की करना
रचियता ...
सुकवि बुधराम यादव
बिलासपुर
5 टिप्पणियाँ:
bahut sunder likha hai
बुध राम जी ने बहुत ही अच्छी कविता लिखी है
बहुत बढिया रचना प्रेषित की है।आभार।
आपने बहुत ही अच्छी कविता का रसास्वादन कराया। धन्यवाद।
बहुत ही उम्दा रचना प्रस्तुत की है, आपका बहुत आभार.
एक टिप्पणी भेजें